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शास्त्रानुसार पितृ श्राद्ध करने के 24 नियम जिसके उपरांत श्राद्ध सम्पूर्ण माना जायेगा

September 24, 2018





पितृ श्राद्ध करने के 24 नियम –
धर्म ग्रंथों के अनुसार श्राद्ध के सोलह दिनों में लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं। ऐसी मान्यता है कि पितरों का ऋण श्राद्ध द्वारा चुकाया जाता है। वर्ष के किसी भी मास तथा तिथि में स्वर्गवासी हुए पितरों के लिए पितृपक्ष की उसी तिथि को श्राद्ध किया जाता है। पूर्णिमा पर देहांत होने से भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को श्राद्ध करने का विधान है। इसी दिन से महालय (श्राद्ध) का प्रारंभ भी माना जाता है। श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए।
पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितृगण वर्षभर तक प्रसन्न रहते हैं। धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि पितरों का पिण्ड दान करने वाला गृहस्थ दीर्घायु, पुत्र-पौत्रादि, यश, स्वर्ग, पुष्टि, बल, लक्ष्मी, पशु, सुख-साधन तथा धन-धान्य आदि की प्राप्ति करता है।

श्राद्ध में पितरों को आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें पिण्ड दान तथा तिलांजलि प्रदान कर संतुष्ट करेंगे। इसी आशा के साथ वे पितृलोक से पृथ्वीलोक पर आते हैं। यही कारण है कि हिंदू धर्म शास्त्रों में प्रत्येक हिंदू गृहस्थ को पितृपक्ष में श्राद्ध अवश्य रूप से करने के लिए कहा गया है। श्राद्ध से जुड़ी कई ऐसी बातें हैं जो बहुत कम लोग जानते हैं। मगर ये बातें श्राद्ध करने से पूर्व जान लेना बहुत जरूरी है क्योंकि कई बार विधिपूर्वक श्राद्ध न करने से पितृ श्राप भी दे देते हैं। आज हम आपको श्राद्ध से जुड़ी कुछ विशेष बातें बता रहे हैं, जो इस प्रकार हैं-
1- श्राद्धकर्म में गाय का घी, दूध या दही काम में लेना चाहिए। यह ध्यान रखें कि गाय को बच्चा हुए दस दिन से अधिक हो चुके हैं। दस दिन के अंदर बछड़े को जन्म देने वाली गाय के दूध का उपयोग श्राद्ध कर्म में नहीं करना चाहिए।
2- श्राद्ध में चांदी के बर्तनों का उपयोग व दान पुण्यदायक तो है ही राक्षसों का नाश करने वाला भी माना गया है। पितरों के लिए चांदी के बर्तन में सिर्फ पानी ही दिए जाए तो वह अक्षय तृप्तिकारक होता है। पितरों के लिए अर्घ्य, पिण्ड और भोजन के बर्तन भी चांदी के हों तो और भी श्रेष्ठ माना जाता है।
3- श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन करवाते समय परोसने के बर्तन दोनों हाथों से पकड़ कर लाने चाहिए, एक हाथ से लाए अन्न पात्र से परोसा हुआ भोजन राक्षस छीन लेते हैं।
4- ब्राह्मण को भोजन मौन रहकर एवं व्यंजनों की प्रशंसा किए बगैर करना चाहिए क्योंकि पितर तब तक ही भोजन ग्रहण करते हैं जब तक ब्राह्मण मौन रहकर भोजन करें।
5- जो पितृ शस्त्र आदि से मारे गए हों उनका श्राद्ध मुख्य तिथि के अतिरिक्त चतुर्दशी को भी करना चाहिए। इससे वे प्रसन्न होते हैं। श्राद्ध गुप्त रूप से करना चाहिए। पिंडदान पर साधारण या नीच मनुष्यों की दृष्टि पहने से वह पितरों को नहीं पहुंचता।
6- श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन करवाना आवश्यक है, जो व्यक्ति बिना ब्राह्मण के श्राद्ध कर्म करता है, उसके घर में पितर भोजन नहीं करते, श्राप देकर लौट जाते हैं। ब्राह्मण हीन श्राद्ध से मनुष्य महापापी होता है।
7- श्राद्ध में जौ, कांगनी, मटर और सरसों का उपयोग श्रेष्ठ रहता है। तिल की मात्रा अधिक होने पर श्राद्ध अक्षय हो जाता है। वास्तव में तिल पिशाचों से श्राद्ध की रक्षा करते हैं। कुशा (एक प्रकार की घास) राक्षसों से बचाते हैं।
8- दूसरे की भूमि पर श्राद्ध नहीं करना चाहिए। वन, पर्वत, पुण्यतीर्थ एवं मंदिर दूसरे की भूमि नहीं माने जाते क्योंकि इन पर किसी का स्वामित्व नहीं माना गया है। अत: इन स्थानों पर श्राद्ध किया जा सकता है।
9- चाहे मनुष्य देवकार्य में ब्राह्मण का चयन करते समय न सोचे, लेकिन पितृ कार्य में योग्य ब्राह्मण का ही चयन करना चाहिए क्योंकि श्राद्ध में पितरों की तृप्ति ब्राह्मणों द्वारा ही होती है।
10- जो व्यक्ति किसी कारणवश एक ही नगर में रहनी वाली अपनी बहिन, जमाई और भानजे को श्राद्ध में भोजन नहीं कराता, उसके यहां पितर के साथ ही देवता भी अन्न ग्रहण नहीं करते।
11- श्राद्ध करते समय यदि कोई भिखारी आ जाए तो उसे आदरपूर्वक भोजन करवाना चाहिए। जो व्यक्ति ऐसे समय में घर आए याचक को भगा देता है उसका श्राद्ध कर्म पूर्ण नहीं माना जाता और उसका फल भी नष्ट हो जाता है।
12- शुक्लपक्ष में, रात्रि में, युग्म दिनों (एक ही दिन दो तिथियों का योग)में तथा अपने जन्मदिन पर कभी श्राद्ध नहीं करना चाहिए। धर्म ग्रंथों के अनुसार सायंकाल का समय राक्षसों के लिए होता है, यह समय सभी कार्यों के लिए निंदित है। अत: शाम के समय भी श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए।
13- श्राद्ध में प्रसन्न पितृगण मनुष्यों को पुत्र, धन, विद्या, आयु, आरोग्य, लौकिक सुख, मोक्ष और स्वर्ग प्रदान करते हैं। श्राद्ध के लिए शुक्लपक्ष की अपेक्षा कृष्णपक्ष श्रेष्ठ माना गया है।
14- रात्रि को राक्षसी समय माना गया है। अत: रात में श्राद्ध कर्म नहीं करना चाहिए। दोनों संध्याओं के समय भी श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए। दिन के आठवें मुहूर्त (कुतपकाल) में पितरों के लिए दिया गया दान अक्षय होता है।
15- श्राद्ध में ये चीजें होना महत्वपूर्ण हैं- गंगाजल, दूध, शहद, दौहित्र, कुश और तिल। केले के पत्ते पर श्राद्ध भोजन निषेध है। सोने, चांदी, कांसे, तांबे के पात्र उत्तम हैं। इनके अभाव में पत्तल उपयोग की जा सकती है।
16- तुलसी से पितृगण प्रसन्न होते हैं। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि पितृगण गरुड़ पर सवार होकर विष्णु लोक को चले जाते हैं। तुलसी से पिंड की पूजा करने से पितर लोग प्रलयकाल तक संतुष्ट रहते हैं।
17- रेशमी, कंबल, ऊन, लकड़ी, तृण, पर्ण, कुश आदि के आसन श्रेष्ठ हैं। आसन में लोहा किसी भी रूप में प्रयुक्त नहीं होना चाहिए।
18– चना, मसूर, उड़द, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा, कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी, बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी, अपवित्र फल या अन्न श्राद्ध में निषेध हैं।
19- श्राद्ध तिथि के पूर्व ही यथाशक्ति विद्वान ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलावा दें। श्राद्ध के दिन भोजन के लिए आए ब्राह्मणों को दक्षिण दिशा में बैठाएं।
20- पितरों की पसंद का भोजन दूध, दही, घी और शहद के साथ अन्न से बनाए गए पकवान जैसे खीर आदि है। इसलिए ब्राह्मणों को ऐसे भोजन कराने का विशेष ध्यान रखें।
21- तैयार भोजन में से गाय, कुत्ते, कौए, देवता और चींटी के लिए थोड़ा सा भाग निकालें। इसके बाद हाथ जल, अक्षत यानी चावल, चन्दन, फूल और तिल लेकर ब्राह्मणों से संकल्प लें।
22- कुत्ते और कौए के निमित्त निकाला भोजन कुत्ते और कौए को ही कराएं किंतु देवता और चींटी का भोजन गाय को खिला सकते हैं। इसके बाद ही ब्राह्मणों को भोजन कराएं। पूरी तृप्ति से भोजन कराने के बाद ब्राह्मणों के मस्तक पर तिलक लगाकर यथाशक्ति कपड़े, अन्न और दक्षिणा दान कर आशीर्वाद पाएं।
23- ब्राह्मणों को भोजन के बाद घर के द्वार तक पूरे सम्मान के साथ विदा करके आएं। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि ब्राह्मणों के साथ-साथ पितर लोग भी चलते हैं। ब्राह्मणों के भोजन के बाद ही अपने परिजनों, दोस्तों और रिश्तेदारों को भोजन कराएं।
24- पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए। पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है। पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में सपिंडों ( एक ही परिवार के) को श्राद्ध करना चाहिए। एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करता है।
भविष्य पुराण के अनुसार 12 प्रकार के श्राद्ध –
1- नित्य, 2- नैमित्तिक, 3- काम्य, 4- वृद्धि, 5- सपिण्डन, 6- पार्वण, 7- गोष्ठी, 8- शुद्धर्थ, 9- कर्मांग, 10- दैविक, 11- यात्रार्थ, 12- पुष्टयर्थ
श्राद्ध के प्रमुख अंग –
तर्पण- इसमें दूध, तिल, कुशा, पुष्प, गंध मिश्रित जल पितरों को तृप्त करने हेतु दिया जाता है। श्राद्ध पक्ष में इसे नित्य करने का विधान है।
भोजन व पिण्ड दान- पितरों के निमित्त ब्राह्मणों को भोजन दिया जाता है। श्राद्ध करते समय चावल या जौ के पिण्ड दान भी किए जाते हैं।
वस्त्रदान– वस्त्र दान देना श्राद्ध का मुख्य लक्ष्य भी है।
दक्षिणा दान- यज्ञ की पत्नी दक्षिणा है जब तक भोजन कराकर वस्त्र और दक्षिणा नहीं दी जाती उसका फल नहीं मिलता।
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पितृपक्ष श्राद्ध 2018 – जानिए श्राद्ध करने के महत्व, विधि, तिथि और नियम

September 24, 2018


पितृ पक्ष 2018 : 2018 में पितृ पक्ष (श्राद्ध) 24 सितंबर 2018 सोमवार से शुरू हो रहे हैं। श्राद्ध पक्ष 8 अक्टूबर 2018 सोमवार को सर्वपितृ अमावस्या को खत्म होगा। जिसके बाद दुर्गा पूजा नवरात्रि 2018 प्रारंभ होगी।
श्राद्ध क्या है ?
ब्रह्म पुराण के अनुसार जो भी वस्तु उचित काल या स्थान पर पितरों के नाम उचित विधि द्वारा ब्राह्मणों को श्रद्धापूर्वक दिया जाए वह श्राद्ध कहलाता है । या यु कहे की पितरों को प्रसन्न करने और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए वर्ष के 16 दिनों को श्राद्धपक्ष कहा जाता है। श्राद्धपक्ष आश्विन माह के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक 15 का होता है और इसमें पूर्णिमा के श्राद्ध के लिए भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को भी शामिल किया जाता है। इस तरह श्राद्धपक्ष कुल 16 दिनों का हो जाता है |
भारत में 24 सितंबर से पितृ पक्ष की शुरूआत होगी,  इस साल श्राद्ध 24 सितंबर से शुरू होकर 8 अक्टूबर 2018 तक चलेंगे. ऐसा माना जाता है श्राद्ध कर अपने पितरों को मृत्यु च्रक से मुक्त कर उन्हें मोक्ष प्राप्त करने में मदद करता है। इन सोलह दिनों में धरती पर रहने वाले मनुष्य अपने मृत परिजनों यानी पितरों के निमित्त पिंड दान, तर्पण, ब्राह्मण भोज, गरीबों को दान आदि जैसे कर्म करते हैं ताकि पितर प्रसन्न होकर उन्हें शुभ आशीर्वाद प्रदान करें।
हिन्दू धर्म और संस्कृति में ऐसी मान्यता है कि पितृगण पितृपक्ष में पृथ्वी पर आते हैं और 15 दिनों तक पृथ्वी पर रहने के बाद अपने लोक लौट जाते हैं। हिन्दू धर्म में बताया गया है कि पितृपक्ष के दौरान पितृ अपने परिजनों के आस-पास रहते हैं, इसलिए इन दिनों कोई भी ऐसा काम नहीं करें जिससे पितृगण नाराज हों। पितरों को खुश रखने के लिए पितृ पक्ष में कुछ बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिए। पितृपक्ष के दौरान , जामाता, भांजा, मामा, गुरु, नाती को भोजन कराना चाहिए। इससे पितृगण अत्यंत प्रसन्न होते हैं, भोजन  करवाते समय भोजन का पात्र दोनों हाथों से पकड़कर लाना चाहिए अन्यथा भोजन का अंश राक्षस ग्रहण कर लेते हैं, जिससे ब्राह्मणों द्वारा अन्न ग्रहण करने के बावजूद पितृगण भोजन का अंश ग्रहण नहीं करते हैं।
पितृ पक्ष में द्वार पर आने वाले किसी भी जीव-जंतु को मारना नहीं चाहिए बल्कि उनके योग्य भोजन का प्रबंध करना चाहिए। हर दिन भोजन बनने के बाद एक हिस्सा निकालकर गाय, कुत्ता, कौआ अथवा बिल्ली को देना चाहिए। मान्यता है कि इन्हें दिया गया भोजन   सीधे पितरों को प्राप्त हो जाता है। शाम के समय घर के द्वार पर एक दीपक जलाकर पितृगणों का ध्यान करना चाहिए। हिन्दू धर्म के अनुसार जिस तिथि को जिसके पूर्वज गमन करते हैं, उसी तिथि को उनका श्राद्ध करना चाहिए।
क्या है श्राद्ध का महत्व
हिन्दू मान्यताओं के अनुसार, हमारी तीन पूर्ववर्ती पीढ़ियां पितृ लोक में रहती हैं, जिसे स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का एक क्षेत्र माना जाता है. जिस पर मृत्यु के देवता यम का अधिकार होता है। ऐसा माना जाता है कि अगली पीढ़ी में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो पहली पीढ़ी उनका श्राद्ध करके उन्हें भगवान के करीब ले जाती है. सिर्फ आखिरी तीन पीढ़ियों को ही श्राद्ध करने का अधिकार होता है |
हिन्दू धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, महाभारत के दौरान, कर्ण की मृत्यु हो जाने के बाद जब उनकी आत्मा स्वर्ग में थी तो उन्हें बहुत सारा सोना और गहने दिए गए. हालांकि कर्ण भोजन के लिए खाना तलाश रहे थे उन्होंने देवता इंद्र से पूछा कि क्यों उन्हें भोजन की जगह सोना दिया गया. तब देवता इंद्र ने कर्ण को बताया कि उसने अपने जीवित रहते हुए पूरा जीवन सोना दान किया लेकिन श्राद्ध के दौरान अपने पूर्वजों को कभी भी खाना दान नहीं किया |
इसके बाद कर्ण ने इंद्र से कहा उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि उनके पूर्वज कौन थे और इसी वजह से वह कभी उन्हें कुछ दान नहीं कर सकें. इस सबके बाद कर्ण को उसकी गलती सुधारने का मौका दिया गया और उसे 15 दिन के लिए पृथ्वी पर वापस भेजा गया, जहां उसने अपने पूर्वजों को याद करते हुए उनका श्राद्ध कर उन्हें खाना-पानी दान किया. 15 दिन की इस अवधि को पितृ पक्ष कहा गया |
इस पक्ष में जो लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं, उनके समस्त मनोरथ पूर्ण होते हैं। जिन लोगों को अपने परिजनों की मृत्यु की तिथि ज्ञात नहीं होती, उनके लिए पितृ पक्ष में कुछ विशेष तिथियां भी निर्धारित की गई हैं, जिस दिन वे पितरों के निमित्त श्राद्ध कर सकते हैं।
पितृ पक्ष में विशेष तिथि अनुसार करे श्राद्ध
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा
इस तिथि को नाना-नानी के श्राद्ध के लिए सही बताया गया है। इस तिथि को श्राद्ध करने से उनकी आत्मा  को शांति मिलती है। यदि नाना-नानी के परिवार में कोई श्राद्ध करने वाला न हो और उनकी मृत्युतिथि याद न हो, तो आप इस दिन उनका श्राद्ध कर सकते हैं।
आश्विन कृष्‍ण पंचमी
जिनकी मृत्यु अविवाहित स्थिति में हुई हो, उनका श्राद्ध इस तिथि को किया जाना चाहिए।
आश्विन कृष्‍ण नवमी
सौभाग्यवती यानि पति के रहते ही जिनकी मृत्यु हो गई हो, उन स्त्रियों का श्राद्ध नवमी को किया जाता है। यह तिथि माता के श्राद्ध के लिए भी उत्तम मानी गई है। इसलिए इसे मातृनवमी भी कहते हैं। मान्यता है कि इस तिथि पर श्राद्ध कर्म करने से कुल की सभी दिवंगत महिलाओं का श्राद्ध हो जाता है।
आश्विन कृष्‍ण एकादशी और द्वादशी
एकादशी में वैष्णव संन्यासी का श्राद्ध करते हैं। अर्थात् इस तिथि को उन लोगों का श्राद्ध किए जाने का विधान है, जिन्होंने संन्यास लिया हो।
आश्विन कृष्‍ण चतुर्दशी
इस तिथि में शस्त्र, आत्म-हत्या, विष और दुर्घटना यानि जिनकी अकाल मृत्यु हुई हो उनका श्राद्ध किया जाता है जबकि बच्चों का श्राद्ध कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को करने के लिए कहा गया है।
सर्व पितृमोक्ष अमावस्या
किसी कारण से पितृपक्ष की अन्य तिथियों पर पितरों का श्राद्ध करने से चूक गए हैं या पितरों की तिथि याद नहीं है, तो इस तिथि पर सभी पितरों का श्राद्ध किया जा सकता है। हिन्दू धर्म अनुसार, इस दिन श्राद्ध करने से कुल के सभी पितरों का श्राद्ध हो जाता है। यही नहीं जिनका मरने पर संस्कार नहीं हुआ हो, उनका भी अमावस्या तिथि को ही श्राद्ध करना चाहिए। बाकी तो जिनकी जो तिथि हो, श्राद्धपक्ष में उसी तिथि पर श्राद्ध करना चाहिए, यही उचित भी है।
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पितृ पक्ष कैलेंडर 2018
 इस साल श्राद्ध 24 सितंबर से शुरू होकर 8 अक्टूबर 2018 तक चलेंगे. पितृ पक्ष के कैलेंडर के अनुसार आप इस प्रकार इस अवधि का पालन कर सकते हैं.
24 सितंबर 2018
सोमवार
पूर्णिमा श्राद्ध
25 सितंबर 2018
मंगलवार
 प्रतिपदा श्राद्ध
26 सितंबर 2018
बुधवार द्वितीय श्राद्ध
27 सितंबर 2018 गुरुवार
तृतीय श्राद्ध
28 सितंबर 2018
शुक्रवार चतुर्थी श्राद्ध
 29 सितंबर 2018 शनिवार
पंचमी श्राद्ध
30 सितंबर 2018
रविवार षष्ठी श्राद्ध
 1 अक्टूबर 2018 सोमवार
सप्तमी श्राद्ध
 2 अक्टूबर 2018
मंगलवार अष्टमी श्राद्ध
 3 अक्टूबर 2018 बुधवार
 नवमी श्राद्ध
 4 अक्टूबर 2018
गुरुवार दशमी श्राद्ध
 5 अक्टूबर 2018
शुक्रवार
 एकादशी श्राद्ध
 6 अक्टूबर 2018 शनिवार
 द्वादशी श्राद्ध
 7 अक्टूबर 2018
रविवार त्रयोदशी श्राद्ध, चतुर्दशी श्राद्ध
8 अक्टूबर 2018 सोमवार सर्वपितृ अमावस्या, महालय अमावस्या
पितृ पक्ष का अंतिम दिन सर्वपित्रू अमावस्या या महालय अमावस्या के नाम से जाना जाता है। पितृ पक्ष में महालय अमावस्या सबसे मुख्य दिन होता है। इस दिन किसी भी मनुष्य का श्राद्ध किया जा सकता है। जिन लोगों को अपने मृत पूर्वजों की तिथि का पूर्ण ज्ञान नहीं होता वे भी इस दिन पितरों का तर्पण करवा सकते है।
विशेष – पिंडदान करने के लिए सफेद या पीले वस्त्र ही धारण करें। जो इस प्रकार श्राद्धादि कर्म संपन्न करते हैं, वे समस्त मनोरथों को प्राप्त करते हैं और अनंत काल तक स्वर्ग का उपभोग करते हैं। विशेष: श्राद्ध कर्म करने वालों को निम्न मंत्र तीन बार अवश्य पढ़ना चाहिए। यह मंत्र ब्रह्मा द्वारा रचित आयु, आरोग्य, धन, लक्ष्मी प्रदान करने वाला अमृतमंत्र है-
देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिश्च एव च। नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्त्युत ।।(वायु पुराण) ।।
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कब करना चाहिए श्राद्ध
श्राद्ध सदैव दोपहर के समय ही करें। प्रातः एवं सायंकाल के समय श्राद्ध निषेध कहा गया है। हमारे हिन्दू धर्म में पितरों को देवताओं के समान संज्ञा दी गई है। ‘सिद्धांत शिरोमणि’ ग्रंथ के अनुसार चंद्रमा की ऊध्र्व कक्षा में पितृलोक है जहां पितृ रहते हैं। पितृ लोक को मनुष्य लोक से आंखों द्वारा नहीं देखा जा सकता। जीवात्मा जब इस स्थूल देह से पृथक होती है उस स्थिति को मृत्यु कहते हैं। यह भौतिक शरीर 27 तत्वों के संघात से बना है।
स्थूल पंच महाभूतों एवं स्थूल कर्मेन्द्रियों को छोड़ने पर अर्थात मृत्यु को प्राप्त हो जाने पर भी 17 तत्वों से बना हुआ सूक्ष्म शरीर विद्यमान रहता है। हिन्दू धर्म और संस्कृति के अनुसार एक वर्ष तक प्रायः सूक्ष्म जीव को नया शरीर नहीं मिलता। मोहवश वह सूक्ष्म जीव स्वजनों व घर के आसपास घूमता रहता है। श्राद्ध कार्य के अनुष्ठान से सूक्ष्म जीव को तृप्ति मिलती है इसीलिए श्राद्ध कर्म किया जाता है।
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ऐसा कुछ भी नहीं है कि इस अनुष्ठान में जो भोजन  खिलाया जाता है वही पदार्थ ज्यों का त्यों उसी आकार, वजन और परिमाण में मृतक पितरों को मिलता है। वास्तव में श्रद्धापूर्वक श्राद्ध में दिए गए भोजन  का सूक्ष्म अंश परिणत होकर उसी अनुपात व मात्रा में प्राणी को मिलता है जिस योनि में वह प्राणी है। पितृ लोक में गया हुआ प्राणी श्राद्ध में दिए हुए अन्न का स्वधा रूप में परिणत हुए को खाता है। यदि शुभ कर्म के कारण मर कर पिता देवता बन गया तो श्राद्ध में दिया हुआ अन्न उसे अमृत में परिणत होकर देवयोनि में प्राप्त होगा। गंधर्व बन गया हो तो वह अन्न अनेक भोगों के रूप में प्राप्त होता है।
पितृपक्ष श्राद्ध 2018 – जानिए श्राद्ध करने के महत्व, विधि, तिथि और नियम पितृपक्ष श्राद्ध 2018 – जानिए श्राद्ध करने के महत्व, विधि, तिथि और नियम Reviewed by Unknown on September 24, 2018 Rating: 5

क्यों है श्री गणेश समस्त गणों यानी इंद्रियों के अधिपति और जाने गणेश चतुर्थी आयोजन का गूढ़ रहस्य

September 22, 2018

  गणेश चतुर्थी आयोजन – Secrets Of Ganesh Chaturthi 

गणपति उपासना दरअसल स्व-जागरण की एक तकनीकी प्रक्रिया है। ढोल नगाड़ों से जुदा और बाहरी क्रियाकलाप से इतर अपनी समस्त इंद्रियों पर नियंत्रण करके ध्यान के माध्यम से अपने अंदर ईश्वरीय तत्व का परिचय प्राप्त करना और मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर होना ही वास्तविक गणेश पूजन है। विनायक कहीं बाहर नहीं हमारे भीतर, सिर्फ हमारे अंतर्मन में ही विराजते हैं। हमारे मूलाधार चक्र पर ही उनका स्थायी आवास है।
गणेश है मूलाधार चक्र के अधिपति
समस्त गणों यानी इंद्रियों के अधिपति हैं महागणाधिपति। आदि देव गणेश जल तत्व के प्रतीक हैं। मूलाधार चक्र हमारे स्थूल शरीर का प्रथम चक्र माना जाता है। यही वो चक्र है, जिस पर यदि कोई जुम्बिश ना हो, जो यदि ना सक्रिय हुआ तो आज्ञाचक्र पर अपनी जीवात्मा का बोध मुमकिन नहीं है। ज्ञानी ध्यानी गणपति चक्र यानी मूलाधार चक्र के जागरण को ही कुण्डलिनी जागरण के नाम से पहचानते हैं।
नकारात्मक कर्म और कष्टों से मुक्ति की यात्रा है ये 10 दिन
कालांतर में जब हमसे हमारा स्वयं का बोध खो गया, हम कर्मों के फल को विस्मृत करके भौतिकता में अंधे होकर उलटे कर्मों के ऋण जाल में फंसकर छटपटाने लगे, हमारे पूर्व कर्मों के फलों ने जब हमारे जीवन को अभावग्रस्त कर दिया, तब हमारे ऋषि मुनियों ने हमें उसका समाधान दिया और हमें गणपति के कर्मकांडीय पूजन से परिचित कराया। पूर्व के नकारात्मक कर्म जनित दुःख, दारिद्रय, अभाव व कष्टों से मुक्ति या इनसे संघर्ष हेतु शक्ति प्राप्त करने के लिए, शारदातिलकम, मंत्र महोदधि, महामंत्र महार्णव सहित तंत्रशास्त्र के कई प्राचीन ग्रंथों में भाद्रपाद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से चतुर्दशी तक यानी 10 दिनों तक गणपति का विग्रह स्थापित करके उस पर ध्यान केंद्रित कर उपासना का विशेष उल्लेख प्राप्त होता है।
गणेश तंत्र के अनुसार भाद्रपद की चतुर्थी को अपने अंगुष्ठ आकार के गणपति की प्रतिमा का निर्माण करके विधि विधान पूर्वक स्थापित करके, उनका पंचोपचार पूजन करें और उनके समक्ष ध्यानस्थ होकर ‘मंत्र जप’ करना आत्मशक्ति के बोध की अनेकानेक तकनीकों में से एक है।
गणपति के बीज मंत्र से मिलेगी ऐश्वर्य और समृद्धि 
यूं तो मंत्र सार्वजनिक रूप से प्रकाशित करने का विषय नहीं है। इसे व्यक्तिगत रूप से किसी सक्षम और समर्थ गुरु से ही लेना चाहिए। इससे उस मंत्र को क्रियाशील होने के लिए शून्य से आरंभ नहीं करना पड़ता। सिर्फ संदर्भ के लिए, गकार यानी पंचांतक पर शशिधर अर्थात् अनुस्वर अथवा शशि यानी विसर्ग लगने से निर्मित “गं” या “ग:” गणपति का बीज मंत्र कहलाता है। इसके ऋषि गणक, छंद निवृत्त और देवता विघ्नराज हैं।
अलग-अलग ऋषियों ने गणपति के पृथक-पृथक मंत्रों को प्रतिपादित किया है। भार्गव ऋषि ने अनुष्टुप छंद, वं बीज और यं शक्ति से “वक्रतुण्डाय हुम” और विराट छंद से “ॐ ह्रीं ग्रीं ह्रीं” को प्रकट किया। वहीं गणक ऋषि ने “गं गणपतये नमः” और कंकोल ऋषि ने “हस्तिपिशाचिलिखै स्वाहा” को जगत के समक्ष रखा।
इन मंत्रों का सवा लाख जप (कलयुग में चार गुना ज्यादा, यानि 5 लाख) किया जाय और चतुर्दशी को जापित संख्या का जीरे, काली मिर्च, गन्ने, दूर्वा, घृत, मधु इत्यादि हविष्य से दशांश आहुति दी जाय तो हमारे नित्य कर्म और आचरण में ऐसे कर्मों का शुमार होने लगता है जो हमें कालांतर में समृद्ध बनाते हैं, ऐश्वर्य प्रदान करते हैं, ऐसा पवित्र ग्रंथ कहते हैं।
हल्दी के गणपति से पुनः यश और प्रतिष्ठा प्राप्त होगी
गणपति तंत्र कहता है कि अगर हमने दूसरों की आलोचना और निंदा करके यदि अपने यश, कीर्ति, मान और प्रतिष्ठा का नाश करके स्वयं को शत्रुओं से घेर लिया हो, और बाह्य तथा आंतरिक दुश्मनों ने जीवन का बेड़ा गर्क कर दिया हो, तो भाद्रपद की चतुर्थी को अंगूठे के आकार के हल्दी के गणपति की स्थापना उसके चतुर्दशी तक “ग्लौं” बीज का कम से कम सवा लाख जप किया जाए तो हमें अपने आंतरिक व बाह्य शत्रुओं पर विजय प्राप्ति में सहायता मिलती है।
रक्त चंदन के गणपति से उत्तम जीवन प्राप्त होगा
प्राचीन ग्रंथों के अनुसार भाद्रपद की चतुर्थी को रक्त चंदन या सितभानु ( सफेद आक) के गणपति की अंगुष्ठ आकार की प्रतिमा की स्थापना करके चतुर्दशी तक नित्य अष्ट मातृकाओं ( ब्राम्‍ही, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इंद्राणी, चामुंडा एवं रमा) तथा दस दिशाओं में वक्रतुंड, एक दंष्ट्र, लंबोदर, विकट, धूम्रवर्ण, विघ्न, गजानन, विनायक, गणपति, एवं हस्तिदन्त का पूजन करके मंत्र जप और नित्य तिल और घृत की आहुति उत्तम जीवन प्रदान करती है।
मिट्टी से निर्मित गणपति से शत्रुओ का नाश निश्चित है
कुम्हार के चाक की मिट्टी से निर्मित प्रतिमा से संपत्ति, गुड़ निर्मित प्रतिमा से सौभाग्य और लवण की प्रतिमा की उपासना से शत्रुता का नाश होता है। ऐसी प्रतिमा का निर्माण यथासंभव स्वयं करें, या कराएं, जिसका आकार अंगुष्ठ यानि अंगूठे से लेकर हथेली अर्थात् मध्यमा अंगुली से मणिबंध तक के माप का हो।
विशेष परिस्थितियों में भी इसका आकार एक हाथ जितना यानी मध्यमा अंगुली से लेकर कोहनी तक हो सकता है। इसके रंगों के कई विवरण मिलते हैं, पर कामना पूर्ति के लिए रक्त वर्ण यानी लाल रंग की प्रतिमा का उल्लेख ग्रंथों में मिलता है। गणपति साधना में मिट्टी, धातु, लवण, दही जैसे कई तत्वों की प्रतिमा का उल्लेख मिलता है, पर प्राचीन ग्रंथ चतुर्थी से चतुर्दशी तक की इस उपासना में विशेष रूप से कुम्हार के चाक की मिट्टी के नियम की संस्तुति करते हैं। ध्यान रहे कि शास्त्रों में कहीं भी विशालकाय प्रतिमा का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है।
गणेश जी को यही भोग पसंद है
शारदातिलकम के त्रयोदश पटल यानि गणपति प्रकरण में लिखा है कि अष्ट द्रव्य यानि मोदक, चिउड़ा, लावा, सत्तू, गन्ने का टुकड़ा, नारियल, शुद्ध तिल और पके हुए केले को विघ्नेश्वर का नैवेद्य माना गया है।

क्यों है श्री गणेश समस्त गणों यानी इंद्रियों के अधिपति और जाने गणेश चतुर्थी आयोजन का गूढ़ रहस्य क्यों है श्री गणेश समस्त गणों यानी इंद्रियों के अधिपति और जाने गणेश चतुर्थी आयोजन का गूढ़ रहस्य Reviewed by Unknown on September 22, 2018 Rating: 5

आज के इस बदलते समय में कैसी शिक्षा और संस्कार बच्चो को देना चाहिए ? जानिए

September 20, 2018



बच्चों को सिखाएं शिष्टाचार और अच्छे संस्कार
परिवार को बच्चों की प्रथम पाठशाला भी कहा जाता है। बच्चों मे अच्छे संस्कारो की नीव परिवार में ही पड़ती है। जब बच्चा पैदा होता है तब वह सीखना शुरु कर देता है। यही सही समय है जब बच्चों मे अच्छे संस्कार विकसित किये जा सकते है क्यूंकि बचपन में बच्चा जो भी सीखता है वह उसकी आदत बन जाती है। उन आदतों को बच्चे कभी भूलते नही है। कहा जाता है कि जब बच्चा छोटा होता है तो उसे आसानी से अच्छी आदते सिखायी जा सकती है क्यूंकि बचपन में सीखी हुई आदते हमेशा के लिए बन जाती है।
बच्चों को जब अच्छे संस्कार सिखाएं जाते हैं तब जाकर वे सामाजिक और व्यवहार कुशल बनते हैं। इसके साथ-साथ बच्चों को उनकी गलतियोँ के भी बारे में बताना और उन गलतिओं को सुधारना भी उतना ही जरुरी है जितना की अच्छे संस्कार देना।
हम सभी चाहते है कि हमारे बच्चे संस्कारी हो। वह अपने से बड़े लोगो का आदर करे। उनमे सभी प्रकार की अच्छी आदतें विकसित हो। हमारे बच्चों मे सभी प्रकार की अच्छे आदते हो। उनमे बड़ो का आदर करने की भावना हो, सभी से शिष्टाचार पूर्ण व्यवहार करना आता हो। बच्चों की गलतियोँ को कभी नजर अंदाज नहीं करना चाहिए, आइये जानते है कि किस तरह हम अपने बच्चो में अच्छे संस्कारो को विकसित कर सकते है-
बड़ो का आदर करना
बच्चों को बड़ा का आदर करना सीखना चहिये। उन्हें बड़ो से किस तरह बात करनी चाहिये। बच्चों को बचपन से ही बड़ो का सम्मान करना सीखना चाहिये। उनको बड़ो के पैर छूना, उनके पैर दबाना, बड़े बुजुर्गो का ख्याल रखना आदि गुणों को विकसित करना चाहिए। बच्चे यदि बड़ो के साथ अपना टाइम व्यतीत करेगे तो उनमे बड़ो के प्रति प्रेम उत्पन्न होगा। घर के बड़े उन्हें अच्छे संस्कार देगे और उन्हें अच्छी कहनियों के माध्यम से बहुत सी अच्छी-अच्छी बाते भी सिखायेगे जो उनके जीवन के लिए उपयोगी होगी।
सुबह जल्दी उठना
देर तक सोने से क्या नुकसान है बच्चो को पता होना चाहिए। बच्चों में बचपन से ही जल्दी उठने की आदत डालनी चाहिये। अगर शुरु से ही बच्चे देर तक सोते रहेगे तो उनमे आदत बन जाएगी और वे जल्दी उठना नहीं सीख पायेंगे। देर तक सोने से उनमे कई बिमारियाँ हो जाएगी औए वे आलस्य का शिकार हो जायेगे।
अपनी जिम्मेदारी समझना
बच्चों को बचपन से ही अपनी जिम्मेदारी उठाना सिखा देना चाहिए ताकि वह खुद को संभाल सके। वह अपने काम के लिए दूसरो पर आश्रित ना रहे। जिम्मेदारी की भावना विकसित करने के लिए उन्हें घर में छोटे-छोटे काम देकर सभी की मदद करने के लिए कहना चाहिए ताकि वह काम को करना सीख सके और काम को किस तरह जिम्मेदारी से पूरा करना है जान सके। उनमे सबकी मदद करने की भावना भी पैदा हो जाये।
सहयोग की भावना
बच्चों में सहयोग की भावना का विकास बचपन से ही करना चाहिये। हमे उन्हें यह बात सिखानी पड़ेगी कि एक दूसरे के साथ के बिना हम कोई भी काम सही ढंग से नही कर पायेगे। एक दूसरे की मदद से हम किसी भी काम को आसानी से कम समय में कर लेगे और हमे अपना जादा समय भी नही खर्च करना पड़ेगा। उनमे सहयोग की भावना विकसित करने के लिए बचपन से ही छोटे-छोटे कामो को करना सिखा देना चाहिए। कम की जिम्मेदारी उन्हें भी उठाने का मौका देना चाहिए।
मैत्रीपूर्ण व्यवहार की भावना
बच्चों को दोस्ती करना भी सीखना चाहिए। उन्हें  दोस्ती का सही मतलब बताना चाहिये। जीवन मे दोस्तों का क्या महत्व है उन्हें पता होना चाहिये। एक माता–पिता होने के नाते हमे अपने बच्चों को लोगो से दोस्ती करना सीखाना चाहिये। उनमे मित्रता करने की भावना का विकास करना चाहिये।
समय का महत्व
समय हर व्यक्ति के जीवन में महत्व रखता है। जो इन्सान समय की कद्र करता है समय उसकी कद्र करता है। बच्चों को समय की उपयोगिता समझना भी अति आवश्यक है। एक अच्छे माता-पिता होने के नाते यह भी जरुरी है कि हम अपने बच्चो को समय का सही सदुपयोग करना भी सिखाना चाहिये। उनको किस समय पढ़ना है, कब खेलना है आना चाहिये।
बात करने का सही तरीका
बच्चों को बचपन से ही बड़ो से बात करने का सही तरीका सिखाना चाहिए। उन्हें इस बात का ज्ञान करना चाहिए की जब बड़ो से बात की जाती है तो किन शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है। किस नाम के आगे जी लगाना है, किस जगह पर आप, प्लीस, थैंक्यू, सॉरी, एस्क्यूज मी, आदि शब्दों का प्रयोग करना है।
छुट्टीयों का सदुपयोग करना सीखना
खाली समय को किस तरह से उपयोग करे बच्चों को सिखाना चाहिए। छुट्टियों में उन्हें उनकी पसंद के कामो को करने देना चाहिए। उनका दाखिला एक ऐसी संस्था में करा देना चाहिए जहाँ पर उन्हें अपने पसंद का काम सीखने का पूरा मौका मिल सके और वह अपने अन्दर छिपी हुई प्रतिभा को पहचान कर उसका सही उपयोग करना  सीख सके।
ईश्वर के प्रति विश्वास
च्चों को अपने देश के धर्म का ज्ञान करना भी जरुरी है। धर्म का ज्ञान कराने के लिए हमें उन्हें तीर्थस्थलों में घुमाने ले जाना चाहिए। ऐसा करने से बच्चे बोर भी नही होगे और उन्हें धर्म के बारे में अच्छे से सिखाया जा सकता है। बच्चो को सुबह जल्दी उठना सीखना चाहिये और नहाने के बाद पूजा करने की आदत भी बच्चों मे डालनी चाहिए। ताकि उनमे ईश्वर के प्रति आस्था उत्पन्न हो।
शिष्टाचार तथा मूल्यों का ज्ञान
एक जिम्मेदार माता-पिता होने के नाते ये हमारा फर्ज बनता है कि हम अपने बच्चों को अनुशासित बनाये। उन्हें जीवन को जीने के सही तौर तरीके सिखाये। उन्हें जीवन में मूल्यों का ज्ञान होना चाहिये ताकि वह एक जिम्मेदार नागरिक बन सके।
नैतिक मूल्य
बच्चों में नैतिक मूल्य विकसित करना बहुत जरुरी है। एक अच्छा नागरिक बनने के लिए उनमे मूल्यों की समझ होनी चाहिए। एक जागरूक समाज के लिए जागरूक नागरिकों का होना भी जरुरी है। माता-पिता के जागरूक होने पर ही वे अपने बच्चों को समाज का एक अच्छा नागरिक बना पायेगे।
निष्कर्ष : हम सभी अपने बच्चों का उज्जवल भविष्य चाहते है। एक माता-पिता की ये ख्याहिश होती है कि उनकी संतान अच्छे गुणों से और अच्छे संस्कारो से परिपूर्ण हो। उनमे ये आदते तभी विकसित होगी जब हमारे अंदर भी अच्छे संस्कार होगे और हम उनके सामने एक आदर्श प्रस्तुत कर सकेगे।
इन बातों का रखेंगे ध्यान तो बच्चा मानेगा आपकी हर बात
किसी के घर जाने पर  यदि आपका बच्चा बहुत अधिक शैतानी करता है ,या बहुत उधम मचाता है तो उनकी गलतियों को नजर  अंदाज न करे , उन्हे समझाने  का प्रयास करे।
दूसरो  के घर जाकर सभी चीजों को छूनाया तोड़ना – फोड़ना या कुछ अच्छी  चीज देख कर घर लेकर चले आना। यदि आपका बच्चा इस तरह की हरकत करता है तो उसे बताए की  दूसरो की चीजों को नहीं छूना चाहिए।
आपके बच्चे की अंदर यदि चोरी की आदत आ गयी है तो उसे समझाए की चोरी  की आदत बुरी  होती है। उसे समझाकर  या डाट कर  बताये की यह आदत बुरी होती है। जिस दिन पहली बार वह ऐसी हरकत करता है उसी दिन उसे समझाए , उसकी गलतियों को नजरअंदाज न करे।
बुरी संगती में रहकर अपने मुँह से अपशब्द न निकाले। उसे सिखाये की हमेशा अच्छी बाते ही मुँह से निकले।
बड़ो का आदर न करने पर उसे बताये की हमेशा बड़ो का अभिवादन  करना चाहिए।
यदि आपका बच्चा  बिना  आपकी परमीशन के  कही जाता है तो उसे नजर  अंदाज न करे , बल्कि उसे बताये की इस तरह वह किसी परेशानी में पड़  सकता है।
आप बच्चे की टीचर से मिलकर यह पता करे की आपका बच्चा अपने क्लास के बच्चो के साथ कैसा व्यहार  करता है , कही वह दूसरे बच्चो को मारता – पीटता तो नहीं है।
अपने से छोटो पर रौब दिखाना या उनको मारना – पीटना या उनका टिफिन खा लेना आदि आदते है तो उनको छोटी बाते समझकर नजर  अंदाज न करे।
यदि आपका बच्चा बात – बात पर जिद करता है तो उसकी इस गलती पर उसे समझाए। बच्चों को नियंत्रित करना सीखें।
नैतिक शिक्षा से दें अपने बच्चों को अच्छे संस्कार। परवरिश के लिए जरूरी हैं अच्छे संस्कार।
निष्कर्ष : बच्चे एक कोरे स्लेट के समान होते है उनको आप जिस तरह का व्यहार करना सिखाएगे उसी तरह का व्यहार आपका बच्चा आपके साथ करेगा।अपने बच्चे को सभ्य और सुसंकृत बनाना आपका कर्तव्य है।
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गणेश चतुर्थी का पूजन 21 दुखों का नाश करता है, इसलिए कहलाते है विनायक

September 20, 2018


गणेश चतुर्थी का पूजन रहस्य
भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को गणेश चतुर्थी के रूप में गणेशोत्सव पूरे देश में उमंग और उत्साह के साथ मनाया जाता है। इसी शुभ दिन गणेश
जी का जन्म हुआ था। इस दिन का बड़ा आध्यात्मिक एवं धार्मिक महत्त्व है। इसलिए इस दिन व्रत किया जाता है एवं अनेक विशिष्ट प्रयोग संपन्न किए जाते हैं। किसी भी मांगलिक कार्य में सबसे पहले गणपति का ध्यान और पूजन किया जाता है क्योंकि यह विघ्नों का नाश करने वाले तथा मंगलमय वातावरण बनाने वाले कहे गए हैं। गणेशजी ही एक ऐसे देवता हैं, जो भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार की सफलताओं को एक साथ देने में समर्थ-और सक्षम हैं।
गणेश चतुर्थी का पूजन 21 दुखों का नाश करता है, इसलिए कहलाते है विनायक गणेश चतुर्थी का पूजन 21 दुखों का नाश करता है, इसलिए कहलाते है विनायक Reviewed by Unknown on September 20, 2018 Rating: 5

घर के मंदिर और दैनिक पूजा-पाठ से जुड़े नियम, जानकारी और सावधानिया

September 20, 2018

पूजा-पाठ दैनिक जीवन से जुड़ा एक अत्यंत महत्वपूर्ण और शांतिपूर्ण कार्य है। जिसे सभी घरों में प्रातःकाल और सायंकाल किया जाता है। हिन्दू धर्म के अनुसार घर में पूजा पाठ करने से परिवार में शांति बनी रहती है और घर में सकारात्मक ऊर्जा रहती है। पूजा करने से घर में मौजूद नकारात्मकता का भी अंत होता है।
यूँ तो सभी अपने रीति-रिवाजों और मान्यताओं के अनुसार घर में पूजा करते हैं। लेकिन शास्त्रों के अनुसार, पूजा करने के कुछ विशेष नियम होते है और पूजा करते समय उनका ध्यान रखना बहुत आवश्यक होता है। इसके अलावा घर का मंदिर भी घर की सकारात्मकता को प्रभावित करता है। शास्त्रों के अनुसार, घर के मंदिर के भी नियम होते हैं जिनके अनुसार ही मंदिर बनवाना चाहिए। यहाँ हम आपको दैनिक पूजा पाठ और घर के मंदिर से जुड़े नियमों के बारे में बता रहे हैं।
घर के मंदिर से जुड़े नियम
शास्त्रों के अनुसार, पूजागृह – मंदिर में दो शिवलिंग, तीन गणेश, दो शंख, दो सूर्य प्रतिमा, तीन देवियों की मूर्ति, दो गोमती चक्र और दो शालिग्राम नहीं रखने चाहिए। और ना ही इनका पूजन करना चाहिए। ऐसा करना घर की शांति के लिए शुभ नहीं माना जाता।
घर के मंदिर में किसी भी भगवान की मूर्ति 9 इंच (22 सेंटीमीटर) से छोटी होनी चाहिए। इससे बड़ी प्रतिमा घर में रखना शुभ नहीं होता। बड़ी प्रतिमा को मंदिर में रखना चाहिए।
दैनिक पूजा-पाठ के नियम
पूजा के नियमानुसार देवी की परिक्रमा एक बार, सूर्य की सात बार, गणेश जी की तीन बार, विष्णु जी की चार बार और शिव जी की आधी परिक्रमा करनी चाहिए।
पूजा में भगवान की आरती करते समय भगवान विष्णु के सामने 12 बार, सूर्य देव के सामने 7 बार, देवी दुर्गा के सामने 9 बार, शंकर भगवान के सामने 11 बार और गणेश जी के सामने 4 बार आरती घुमानी चाहिए।
घर और मंदिर दोनों स्थानों पर पूजा करते समय केवल जमीन पर नहीं बैठना चाहिए। आसान बिछाकर बैठना चाहिए।
वास्तु अनुसार आपका घर कैसा हो
नए घर का शिलान्यास सबसे पहले आग्नेय दिशा में करना चाहिए। बाकी का निर्माण प्रदक्षिण-क्रम में करना चाहिए।
संध्याकाल, मध्याह्न, मध्य रात्रि में नींव नहीं रखनी चाहिए और ना ही भूमि पूजन करना चाहिए।
पूर्व, उत्तर और ईशान दिशा में नीची भूमि सबके लिए बहुत लाभकारी होती है। जबकि अन्य दिशाओं में नीची भूमि सबके लिए हानिकारक होती है।
वास्तु के अनुसार, घर के उत्तर में पाकड़, पूर्व में वटवृक्ष, दक्षिण में गुलर और पश्चिम में पीपल का पेड़ शुभ होता है। लेकिन पेड़ की छाया घर पर नहीं पड़नी चाहिए।
नए मकान का निर्माण करवाते समय, ईंट, लोहा, पत्थर, मिट्टी और लकड़ी ये सब नए ही लगवाने चाहिए। एक मकान की सामग्री को दूसरे मकान में नहीं लगवाना चाहिए। ऐसा करना अशुभ माना जाता है और मकान व् परिवार के लिए हानिकारक होता है।
सोने के समय हमेशा सिर हमेशा पूर्व और दक्षिण दिशा की ओर करना चाहिए।
प्रतिदिन घर से निकलते समय माथे पर तिलक, चंदन लगाना चाहिए इससे दिन शुभ जाता है और सभी कार्य बन जाते हैं।
तो ये थे दैनिक पूजा पाठ, घर के मंदिर और वास्तु के जुड़े कुछ नियम जिनका ध्यान रखना बहुत जरुरी होता है। माना जाता है, इन नियमों के अनुसार सभी कार्य करने से घर में खुशियां आती हैं और सकारात्मक ऊर्जा रहती है।
घर के मंदिर और दैनिक पूजा-पाठ से जुड़े नियम, जानकारी और सावधानिया घर के मंदिर और दैनिक पूजा-पाठ से जुड़े नियम, जानकारी और सावधानिया Reviewed by Unknown on September 20, 2018 Rating: 5

ब्रह्म तत्व सर्वव्यापी है और जो शाश्वत अजर-अमर और अविनाशी स्वरूप है

September 15, 2018
सृष्टि के कण-कण में उसका निवास है। अणु-अणु का मूलाधार वह परमात्म तत्त्व ही है। सब कुछ उसी से बनता और उसी चेतन शक्ति से परिचालित होता है। प्रत्येक पदार्थ एवं प्राणी एक उसी तत्त्व के अंश हैं। व्यक्तिगत जीवन समष्टिगत जीवन सीमित और असीमित के मिथ्या भेद के बावजूद तत्त्वतः एक ही है।
उपनिषदों में परमात्म तत्त्व को ‘सच्चिदानन्द’ के रूप में देखा गया है। उनमें’परमात्मा को सच्चिदानन्द कहा गया है। सत् अर्थात् शाश्वत अजर-अमर और अविनाशी स्वरूप। चित् अर्थात् चेतना। चेतना अर्थात् दिव्य गुणों से सुसज्जित, उच्चस्तरीय आदर्शों-आस्थाओं से युक्त। आनन्द अर्थात् भाव संवेदनाओं, सरसता, मृदुलता से सिक्त।
यह सच्चिदानन्द सत्ता, उपास्य के रूप में ईश्वर, निराकार व्यापकता के रूप में देवता, जीवों के अस्तित्व के केन्द्र के रूप में विराजमान अन्तरात्मा तथा सृष्टि के व्यवहार को सुधारने, इसे सौंदर्य मण्डित करने आए अवतार के रूप में अपनी अनुभूति देती है। यह तत्त्व बुद्धि और तर्क से परे होते हुए भी बुद्धि और तर्क युक्त है।’
प्रकृति की समस्त हलचलों का केन्द्रबिन्दु यही एक केन्द्रीय शक्ति है। वही विविध रूप धारण करती तथा संसार को रचती है। सम्पूर्ण सृष्टि में वही संव्याप्त है। इसी कारण इस महाशक्ति को ब्रह्म कहते हैं। ब्रह्म के अतिरिक्त ब्रह्मांड में और कुछ नहीं है। ‘एको ब्रह्म द्वितीयोनास्ति’ की उक्ति इसी तथ्य पर आधारित है। उसके प्रकाश से ही तारे, ग्रह, नक्षत्र, सूर्य सभी प्रकाशित हैं। जीव-जन्तु वनस्पतियों में उसकी चेतन तरंगें ही क्रीडा कल्लोल कर रही हैं।
ब्रह्म एक ऐसी चेतन सत्ता है जिससे संसार का न तो एक कण रिक्त है न एक क्षण। वह ब्रह्म सूर्य रूप में (आत्मा रूप में), तत्त्व रूप में प्रतिभासित होता है और प्रकृति के संयोग से भिन्न शरीरों और वासनाओं वाले जीवों का निर्माण करता है। इस तथ्य को बड़े ही सुन्दर ढंग से कहा जा सकता है-जिस प्रकार एक सूर्य-एक आत्मा के अनन्त जीवन है, जो उस मूल चेतना आद्यशक्ति से प्राण पाते हैं, उसी प्रकार अनेक आत्माएँ ब्रह्म से जीवन और चेतना प्राप्त करती हैं।
जिस प्रकार समुद्र, नदी, नद और ताल, पोखरों में एक तत्त्व जल ही सर्वत्र है उसी प्रकार जीव-आत्मा, ब्रह्म में एक ही प्राण तत्त्व का विकास, एक ही मनोदय चेतना प्राप्त कर रही है। अपने जीवन तत्त्व को भाव नदी में बदलकर नदी हो जाती है और नदी समुद्र, उसी प्रकार प्राणों का जीव से आत्मा में आत्मा से ब्रह्म में विकास और उसी में मानसिक चेतना या संकल्प की स्थिरता ही जीव का आत्मा ब्राह्मीभूत होता है।
इस प्रकार ब्रह्म सर्वव्यापी, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है। सर्वव्यापी क्योंकि सभी रूप देश और काल के उसके स्वयं अपने विस्तार में उसकी गति की शक्ति से उत्पन्न उसकी चेतन सत्ता के रूप हैं। सभी वस्तुएँ उसकी चेतना में रहती हैं, और उसके द्वारा बनायी जाती हैं एवं उसी के अधिकार में रहती हैं। वह सर्वज्ञ है। सर्वाधिकारी चेतना ही एक सर्वाधिकारी शक्ति और सर्वसूचक संकल्प है, अतः वह सर्वशक्तिमान है।
ब्रह्म को सृष्टा, नियन्ता, पोषक मानते हुए उसे घट-घट व्यापी सर्वज्ञ समाहित ही माना जा सकता है। अतः परमात्मा निराकार है। साकार रूप के संदर्भ में कहें तो परमात्मा का साकार रूप देखना हो तो इस विश्व की ही परमेश्वर माना जा सकता है। निश्चित रूप से परमात्मा निराकार होने की तरह साकार भी है। इस विश्व में जो कुछ दृश्यमान हो रहा है, उसे परमात्मा ही कहना चाहिए।


परमात्मा को तर्कों से परे एवं तर्क सम्मत भी माना जा सकता है। ईश्वर और उनका सृष्टि प्रवाह अनन्त है। उसकी अनन्तता उसके अमृतत्त्व में समाहित है,क्योंकि मृतत्त्व परिमितता की निशानी है। अथर्ववेद इसी का उद्घोष करते हुए कहता है- ‘भूतं च भाष्यं च सर्व यश्चाद्यितिष्ठति’ अर्थात् ईश्वर तीनों कालों से परे हैं। साथ ही तर्कों से परे भी। सृष्टि की गहराई में उतरने पर स्पष्ट हो जाता है कि उसके कण-कण में नियम और नियंत्रण संव्याप्त है।

यहाँ पर सारा सूत्र संचालन इस प्रकार हो रहा है मानो किसी बाजीगर की उंगलियों में बँधे धागे सारी कठपुतलियों को तरह-तरह के नाच नचा रहे हों। कर्त्ता के बिना कोई क्रिया नहीं हो सकती। समग्र सृष्टि का संचालन करने वाला कोटि-कोटि जीवों में चेतना का संचार करने वाला सर्वशक्तिमान नियन्ता एक ही कारीगर है।

विश्व के अन्तराल में काम करने वाला इसका शक्ति प्रवाह केवल ज्ञान युक्त ही नहीं न्याय (तर्क) और औचित्य के तथ्यों से भी ओतप्रोत है। सबमें एक ही परमात्मा का वास है। आस्थाओं का विकास जब इस स्तर तक कर लिया जाता है तो व्यक्ति ईश्वर के सामीप्य की आनन्दानुभूति करने योग्य बन जाता है। इस आनन्दानुभूति में अनुभव किया जा सकता है कि- विश्व में रंच मात्र भी स्थान ऐसा नहीं है, जहाँ ईश्वर न हो। अणु-अणु में उसकी महत्ता व्याप्त हो रही है। अब ईश्वर को आदर्शों का समुच्चय कहा जा सकता है।

हम ईश्वर को जिस गज से नापते हैं, वह बहुत छोटा है। ईश्वर का स्वरूप है-महानता। इस विशाल ब्रह्मांड को उसकी छबि के रूप में देखा जा सकता है और इस सुविस्तृत विस्तार के अंतर्गत हो रही ज्ञान और अविज्ञात हलचलों को उस महासागर की तरंगें समझा जा सकती हैं। इसे प्राप्त करने के लिए हमें अपनी संकीर्णता छोड़नी पड़ेगी और उसकी महानता अपनानी पड़ेगी जिसके सहारे उस महान् परमेश्वर को देखा जा सके।

अपनी महानता और व्यापकता में परमेश्वर संवेदनाओं का संगीत बन झरता है, प्रेम का गीत बन गूँजता है, भावनाओं का प्रवाह बन बहता और आनन्द रूप हो अन्तःकरण को रस विभोर करता है। प्रेम परमेश्वर की भावाभिव्यक्ति है। वस्तुतः प्रेम ही परमेश्वर है। प्रेम ही संसार में अकेली अपार्थिव वस्तु है। मनुष्य का सारा दर्शन, सारा काव्य, सारा धर्म एवं सारी संस्कृति इसी एक शब्द से अनुप्रेरित है। व्यष्टि और समष्टि में आत्मा का वह प्रेम प्रकाश ही ईश्वर की मंगलमयी रचना का संदेश दे रहा है। यह प्रेममय परमेश्वर ही सम्पूर्ण जड़ चेतन शक्ति का निर्माण, नियंत्रण, संचालन और व्यवस्था करने वाली चेतना है। अतः परमेश्वर ‘रसो वै सः’ से ओतप्रोत है।

परमेश्वर को सृजेता के रूप में उल्लेख करते हुए कहा जा सकता है- सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने अपनी इच्छा शक्ति से जीवों को उत्पन्न किया। कोई रचना बिना रचनाकार के अस्तित्व नहीं प्राप्त करती। इस संसार में जो कुछ भी दृश्य दिखाई देता है उसके पीछे कुछ न कुछ अदृश्य सूत्र अवश्य समझ पड़ते हैं। सृष्टा की सृजन शक्ति का मूर्त रूप ही सृष्टि है। ‘एकोऽम बहुस्यामः’ के संकल्प ने ही विश्व ब्रह्मांड के सौंदर्य का रूप लिया है। परमात्मा ने सृष्टि बनायी है और बनाकर नियम सूत्रों से इसे बाँध दिया है कि सब कार्य यथावत् चल रहा है। ईश्वर सृष्टि में व्यापक है।

परमात्मा को नियामक सत्ता कहते हैं। इस तथ्य को इस प्रकार शब्द दिया जा सकता है – नियामक के बिना नियम व्यवस्था, प्रशासक के बिना प्रशासन तो चल सकते हैं परन्तु कुछ समय से अधिक नहीं। फिर इतनी बड़ी और व्यवस्थित सृष्टि का प्रशासक, स्वामी और मुखिया न होता तो संसार न जाने कब का विनष्ट हो चुका होता। जड़ में शक्ति हो सकती है, व्यवस्था नहीं। नियम सचेतन सत्ता ही बना सकती है, सो इन तथ्यों के प्रकाश में परमात्मा की महत्ता चरितार्थ हुए बिना नहीं रहती। संसार का हर परमाणु एक निर्धारित नियम पर काम करता है। यदि इसमें रत्ती भर भी अव्यवस्था और अनुशासनहीनता आ जाय तो विराट् ब्रह्मांड एक क्षण भी नहीं टिक पाता।

नियामक सत्ता की विधि व्यवस्था का विश्लेषण करते हुए चार तत्त्वों का उल्लेख होता है। प्रथम है नियम व्यवस्था। पिण्ड से लेकर ब्रह्मांड तक तथा चेतन जगत् में एक नियम व्यवस्था कार्य कर रही है। प्रत्येक जीव चाहे मनुष्य हो अथवा छोटे प्राणी सभी इस व्यवस्था के अंतर्गत ही गतिशील हैं। वृक्ष वनस्पतियों का भी यही क्रम है। न केवल जीव जगत् वरन् अणु से लेकर ब्रह्मांड तक सुव्यवस्थित क्रम में गतिशील हैं।

जिसके द्वारा परमात्मा के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है वह है सहयोग। इसी पर ही सृष्टि की व्यवस्था टिकी है। सहयोग की परम्परा जड़-चेतन सभी में देखी जा सकती है। सहयोग की प्रवृत्ति सृष्टि के कण-कण में झलकती है। विशाल ब्रह्मांड तथा पिण्ड सभी के अस्तित्व को सुव्यवस्थित बनाये रखने में सहयोगिता का सिद्धान्त ही कार्य करता है। सहयोगिता पर सृष्टि भी टिकी है।

विशालता तीसरी विशेषता है। भीमकाय पर्वत, अथाह समुद्र, रहस्यों से भरा अनन्त अन्तरिक्ष, असंख्यों ग्रह-नक्षत्र, तारा-पिण्डों को देखकर बुद्धि आश्चर्य चकित हो जाती है। यह तो जड़ जगत् की बात हुई। अदृश्य सूक्ष्म की परतें और भी अद्भुत हैं। स्थूल तो मात्र कलेवर हैं जो कठपुतली के धागे के समान चेतन परतों द्वारा संचालित हैं। जहाँ विराट् का असीम क्षेत्र मानवी मस्तिष्क को हतप्रभ कर रहा है, वहीं सूक्ष्मता की ओर बढ़ने पर शक्ति का लहलहाता हुआ सागर दिखाई पड़ता है। शास्त्रकारों ने परमात्मा के विराट् एवं सूक्ष्म स्वरूप को देखकर कहा-अणोरणीयान्, महतो महीयान्।

अन्तिम है सृष्टि रचना का उद्देश्य। न केवल जड़ प्रकृति बल्कि चेतन प्राणियों के निर्माण में भी सृष्टा का सुनिश्चित प्रयोजन है। नियम-व्यवस्था, सहयोग, विशालता, उद्देश्य इन सिद्धान्तों के पीछे उस अदृश्य सत्ता का स्पष्ट प्रमाण मिलता है। इसे सृष्टा, नियामक परिवर्तनकर्त्ता एवं सर्वव्यापी परमात्मा के नाम से संबोधन कर सकते हैं।

आद्य बीज शक्ति ईश्वर की अनेक शक्तियाँ हैं। उनका मन है कि देवता किसी की प्रतिकृति नहीं वरन् विशिष्ट गुण या शक्ति के प्रतीक मात्र हैं और वह शक्तियाँ सूक्ष्म जगत् में क्रियाशील हैं। सभी देवता परमात्मा की विभिन्न अलौकिक शक्तियाँ हैं। किसी के भी आश्रय से उस परम प्रभु को प्राप्त करने का विज्ञान था।

वही एक देव सब भूतों में ओतप्रोत होकर सबकी अन्तरात्मा के रूप में सर्वज्ञ व्याप्त हैं। वह इस कर्म शरीर का अध्ययन है। निर्गुण होते हुए भी चेतना शक्ति युक्त है। आत्मा चिंगारी है और परमात्मा ज्वाला। ज्वाला की समस्त संभावनाएँ चिंगारी में विद्यमान है। जीव ईश्वर का अंश है। अंश में अंशी के समस्त गुण पाए जाते हैं।

परमात्मा स्वयं विश्वातीत हैं, विश्वमय हैं, सर्वेश्वर हैं, तब भी वे अपनी प्रकृति को अधिष्ठान बनाकर अपने संकल्प के अधीन रखकर व्यक्ति भावापन्न हो जाते हैं। इसी पर्सोनीफाइड चेतना को अवतार की संज्ञा दी जाती है। अखण्ड खण्डित किस तरह से हुआ? यह प्रश्न व्यर्थ है। परमात्मा सर्वव्यापक, अनन्त और अखण्डित ही हैं। अवतार भी एक निराकार चेतना ही होती है। जब जिस प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं तब उसी का समाधान करने के लिए सूक्ष्म जगत् में एक दिव्य प्रादुर्भूति होती रही है। इस दिव्य चेतना को भगवान् का अवतार कहा जाता है।

‘मानुषी तनुमाश्रितं’ का रहस्योद्घाटन करते हुए कहा जा सकता है- युगान्तर चेतना से प्रभावित आदर्शवादी व्यक्ति सृजन साधनों में अधिक तत्परतापूर्वक लगे हुए दिखाई दें तो उसे अवतार की प्रेरणा ही मानना चाहिए। अतः अपनी अवतार प्रक्रिया में भी ईश्वर निराकार, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ और अखण्डित रहता है।

इस प्रकार ईश्वरानुभूति न तो अन्धश्रद्धा युक्त है और न अज्ञेयवादी। परमात्म तत्त्व न तो पूर्णतया ज्ञान है और न पूर्णतया अज्ञान। परमात्मा का स्वरूप विश्लेषण उपनिषदों के लिए प्रयत्न शील और सदैव निरीक्षण, परीक्षण, तुलना, उत्पत्ति और परिवर्तन तक के लिए सन्नद्ध हैं। उदारता सहिष्णुता की प्रवृत्ति उनकी विशेषता है
ब्रह्म तत्व सर्वव्यापी है और जो शाश्वत अजर-अमर और अविनाशी स्वरूप है ब्रह्म तत्व सर्वव्यापी है और जो शाश्वत अजर-अमर और अविनाशी स्वरूप है Reviewed by Bhakti Mantra on September 15, 2018 Rating: 5
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